राजनीतिक शक्ति का
केंद्र-बिंदु : कालंजर

by Dr. सुशील कुमार सुल्लेरे

पूर्व मध्यकाल के आंचलिक राजवंशों में जेजाकभुक्ति (वर्तमान बुंदेलखंड) के चंदेलों का प्रमुख स्थान है।  चंदेल अपनी राजनीतिक और सामरिक गतिविधियों के लिए जहां प्रसिद्ध है,  वहीं स्थापत्य तथा मूर्तिकला के लिए भी उनकी ख्याति है ।  चंदेलों का काल बाह्य आक्रमणों एवं स्वदेशी राजवंशों में सत्ता संघर्ष का समय था। इनके राज्य की  सुरक्षा में गिरिदुर्गों का सर्वाधिक महत्व था जो शक्ति, सत्ता और सुरक्षा के अधिष्ठान के साथ ही साथ राजनीतिक, सामरिक, धार्मिक, आर्थिक तथा कलात्मक गतिविधियों के भी केंद्र थे।  चंदेलों  के प्रमुख नगरों में कलिंजर अजयगढ़ (जयपुर दुर्ग अथवा नंदीपुर), खजुराहो, महोबा (महोत्सव नगर) गोपगिरि (ग्वालियर),  कीर्तिगिरि दुर्ग (देवगढ़) मदनपुर आदि थे।   

पूर्व मध्यकाल में राज्य के प्रमुख अंगों में पर्वतीय दुर्गों की गणना की जाती थी।1  यही कारण है कि नगरों को दुर्गीकृत करने के निर्देश शिल्पशास्त्रों में दिए गए हैं।  कामंदक ने  दुर्ग को इस प्रकार से परिभाषित  किया है- “जो छिपकर युद्ध करने का माध्यम है, जो जनरक्षा करता है, जो मित्र को धारण करता है और शत्रु का परिग्रह करता है,  जो सामंत  तथा आटविकों का  विरोध करता है, वह दुर्ग है।2  याज्ञवल्क्य का मत है कि दुर्ग, सम्राट, प्रजा  एवं कोष को सुरक्षा प्रदान करता है।3 यह स्वाभाविक बात है कि एक राजा जिसके पास अनेक दुर्ग हैं, वह अपने लोगों से ही नहीं वरन्  अपने शत्रुओं से भी सम्मान प्राप्त करता है।4 युक्ति कल्पतरु  में उल्लेख है कि  एक सार्वभौम  राजा की शक्ति उसके दुर्ग में निहित होती है।5

कालंजर और अजयगढ़ की गिरि दुर्गों का महत्व चंदेल के इतिहास में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित  कालंजर की गणना    चंदेलों के आठ  प्रमुख दुर्गों में की जाती थी।6 राजनीति सत्ता का केंद्र बिंदु बनने से पूर्व यह  धार्मिक महत्व का स्थल था। कालंजर की धार्मिक महत्ता वाल्मीकि रामायण7 और महाभारत8 से भी ज्ञात होती है। महाभारत में कालंजर को “लोकविश्रुत” की संज्ञा प्रदान की गई है।9 पुराणों में कालंजर के नामकरण10, स्थिति11, तीर्थ12, क्षेत्र13 आदि के बारे में जानकारी मिलती है। स्रोतों में इसे ऊखल14 अर्थात पवित्र स्थलतीर्थ, श्राद्धतीर्थ15, साधनास्थल16 पापनाशक, पुण्य स्थान17 , वन18 तथा नीलकंठ19  आदि कहकर पुकारा गया है ।  पुराणों में कालंजर के संबंध में विभिन्न आख्यान मिलते हैं ।20  इसके साथ ही ब्राह्मणेत्तर साहित्य21, विदेशी वृतांत22 तथा अभिलेखीय23 साक्ष्यों से भी कालंजर के ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है।

चंदेल वंश के उद्भव के संबंध में प्रचलित अनुश्रुतियों से विदित होता है कि कालंजर  पर चंदेलों  का आधिपत्य प्रारंभ से था और कालंजर दुर्ग की स्थापना का श्रेय चंदेलवंशीय आदि पुरुष चंद्रवर्मन को दिया गया है किंतु अभिलेखीय  साक्ष्यों से इन अनुश्रुतियों की पुष्टि नहीं होती । अभिलेखीय सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि यह दुर्ग चंदेलों के पूर्व भी विद्यमान था । उस पर चंदेलों के पूर्व पांडुवंशी उदयन24 ने शासन किया। साथ ही कलचुरियों25, गुर्जर प्रतिहारों26 , एवं राष्ट्रकूटों27 ने इस पर शासन किया था। कलचुरि शासकों के द्वारा कालंजरपुरवराधीश्वर28 की उपाधि धारण करना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कालंजर की गणना उस समय के  श्रेष्ठ नगरों में की जाती थी और चंदेल शासकों एवं कलचुरियों को इस आधिपत्य पर गर्व था । अभिलेखीय  साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम चंदेल शासक यशोवर्मन ने कालिंजर दुर्ग पर अधिपत्य स्थापित किया था ।29  यह उपलब्धि चंदेलों के इतिहास की एक युगांतकारी घटना मानी जा सकती है। खजुराहो अभिलेख में उल्लेख है कि यशोवर्मन ने सहज रूप से कालंजर गिरि को जीत लिया था जो नीलकंठ का अधिवास था और अपनी तुंगता मध्यान्ह सूर्य की प्रगति को बाधित करता था।30 सत्ता संघर्ष के उस युग में पर्वतीय दुर्गों पर अधिपत्य सामरिक दृष्टि से बड़ा ही प्रतिष्ठापूर्ण माना जाता था।  कालंजर विजय के परिणामस्वरूप चंदेल वंश की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और उनकी गणना एक शक्तिशाली राजवंश के रूप में होने लगी।31  कालंजर के सुदृढ़ दुर्ग ने चंदेलों  को बाह्य  शत्रुओं से तुलनात्मक दृष्टि से सुरक्षा प्रदान की।32 

धंग के शासन काल में चंदेल साम्राज्य की सीमाएं लगभग अंतिम रूप से निर्धारित हो गई थीं । खजुराहो अभिलेख में उसकी राज्य सीमा का निर्धारण कालंजर से मालव नदी तक, मालव नदी से कलिंदी तक, कलिंदी से चेदि राज्य तक और चेदी राज्य से गोपद्रि  (ग्वालियर) तक किया गया है।33 इस प्रकार से उत्तर भारत के दो प्रमुख दुर्ग, कालिंजर और ग्वालियर, इस समय चंदेलों  के अधिकार में आ गए थे। धंग के 1055 वि. सं. (998 ई.) के एक अभिलेख में उसे “कालंजराधिपति” 34  की उपाधि से अलंकृत किया गया है । फरिश्ता के अनुसार सुबुक्तगीन के आक्रमण के विरुद्ध शाही शासक जयपाल को दिल्ली, अजमेर, कलिंजर और कन्नौज के शासकों ने सहायता प्रदान की थी।35 कालंजर आधिपत्य का एक प्रभाव यह भी पड़ा कि चंदेल शासक, जो पूर्व में वैष्णव थे36, धंग के शासनकाल में शैव हो गए।

धंग के उपरांत उसका पुत्र गंड (999 ई. से 1000 ई. तक) अल्पकाल के  लिए गद्दी पर बैठा ।  विद्याधर उसके पश्चात (1003 ई. से1030 ई. तक) अपने युग  का चंदेल वंश का सबसे प्रतापी एवं शक्तिशाली शासक हुआ। महमूद गजनवी के आक्रमण के विरुद्ध देश की सुरक्षार्थ इसकी साहसपूर्ण भूमिका के कारण मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका उल्लेख “बीदा” के नाम से किया है तथा उसे अपने समय के भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बतलाया है ।37  शाही शासक  आनंदपाल द्वारा महमूद के आक्रमण के विरुद्ध भारतीय शासकों से सहायता के लिए पहल की गई थी उनमें उज्जैन, ग्वालियर, कलिंजर, दिल्ली, कन्नौज एवं अजमेर के शासक थे ।38 इस प्रकार चंदेल शासकों ने दोनों ही बार शाही शासकों के संघ में सम्मिलित होकर महमूद गजनवी के आक्रमणों  की प्रतिरक्षा में अपना योगदान दिया। शाही शासकों के  प्रतिरोध के बाद महमूद ने 1018 ई. में  कन्नौज पर आक्रमण किया । इस आक्रमण प्रतिरोध करने के स्थान पर कन्नौज का प्रतिहार शासक पलायन कर गया और कन्नौज को महमूद के हाथों लूट के लिए खुला छोड़ दिया।  ऐसी स्थिति में तुर्क अक्रांताओं  का सामना करने तथा देश की रक्षा का दायित्व विद्याधर के सबल कंधों पर आ पड़ा था।39

महमूद गजनबी के आक्रमणों का प्रतिरोध करने के लिए विद्याधर ने  अन्य भारतीय नरेशों से संधि कर ली।40  महमूद गजनबी और चंदेल शासक विद्याधर के मध्य हुए संघर्ष का विवरण मुस्लिम लेखों के वृतांतों से ज्ञात होता है ।  इब्नुल –अथिर के अनुसार इस गठजोड़ से महमूद चिंतित हो उठा और वह युद्ध की तैयारी करने लगा तथा हिजरी सन् 410 (1019 ई.) में विद्याधर को उद्देश बनाकर अफगानिस्तान होता हुआ पुनः एक बार भारत के हरे-भरे मैदानों में आ गया। इब्नुल –अथिर और निजामुद्दीन के अनुसार यमुना40 के तट पर नरोजयपाल अथवा परोजयपाल (जो शायद त्रिलोचनपाल नाम के ही विकृत रूप है)  पंजाब का शाही राजा था । उसने नदी के अपने तट पर ऐसी नाकाबंदी की थी कि महमूद को उसे पार करने के लिए युद्ध कौशल का परिचय देना पड़ा।  त्रिलोचनपाल ने युद्ध किया तथा पराजित होकर विद्याधर से मिलने के लिए भागा किंतु रास्ते में उसे कुछ हिंदुओं ने मार डाला।43 महमूद ने आगे बढ़ते हुए बारी को ध्वस्त किया तथा विद्याधर की ओर उन्मुख हुआ । विद्याधर भी महमूद का सामना करने के लिए कालंजर दुर्ग से बड़ी सेना लेकर  बढ़ा जिसका उल्लेख मुस्लिम लेखकों ने किया है । इब्नुल–अथिर के विवरण से ज्ञात होता है कि महमूद और विद्याधर के मध्य युद्ध नदी के तट पर हुआ लेकिन उसने नदी का नाम नहीं दिया है।44  चंदेल शासक  विद्याधर की सामरिक रणनीति से महमूद निराश होकर वापस लौट गया।45 

विद्याधर को परास्त करने के उद्देश्य से महमूद को 1022 ई. में पुनः आक्रमण करना पड़ा । सर्वप्रथम महमूद ने ग्वालियर के पर्वतीय दुर्ग को घेरा किंतु उसको वह अधिकृत न कर सका।  ग्वालियर के बाद महमूद ने कालंजर पर आक्रमण किया और महमूद गजनवी और विद्याधर के मध्य परस्पर संधि हो गई थी और वह  लौट गया जबकि तत्कालीन मुस्लिम लेखकों के अनुसार महमूद गजनवी कालंजर को जीत लिया था ।46    विद्याधर ने महमूद गजनवी के आक्रमण का न केवल विरोध किया  वरन् अपने साम्राज्य की रक्षा कर खजुराहों के मंदिरों को विध्वंश होने से सुरक्षित रखा। उसके शासन काल में खजुराहों के सबसे प्रसिद्ध और भव्य मंदिर कंदरिया  महादेव का निर्माण भी हुआ था । 

विद्याधर की मृत्यु के बाद  चंदेल में इतिहास में परिवर्तन आता है तथा विजयपाल और देववर्मन के समय में ह्रास के लक्षण दिखाई देने लगते हैं लेकिन देववर्मन “कालंजराधिपति”  विरुद  धारण करता है तथा कालंजर दुर्ग पर अधिपत्य बनाए रखता है।47  विक्रमांकदेव चरित  उसे “कालंजरगिरिपति”  कहकर संबोधित करता है। कीर्ति वर्मन  का नाम कालंजर तथा अजयगढ़ के दुर्गों के अंदर निर्माण कार्यों से जुड़ा है।48 कीर्त्तिवर्मन के उपरांत मदनवर्मन के शासनकाल के अभिलेख  कालंजर और अजयगढ़ से मिलते हैं । परमर्दिदेव चंदेल वंश का अंतिम प्रभावशाली शासक था। उसे प्रायः सभी अभिलेखों में “कालंजराधिपति”  की उपाधि से विभूषित किया गया है । उसे चाहमानों से संघर्ष के अतिरिक्त कुतुबुद्दीन के आक्रमण को भी झेलना पड़ा परंतु वह उसका सामना नहीं कर सका और उसे आत्मसमर्पण  के लिए विवश होना पड़ा । उसकी मृत्यु के बाद उसके मंत्री अजयदेव ने राज्य की रक्षा का प्रयास किया।  जल स्रोतों के सूख जाने के कारण अंतिम प्रतिरोध भी समाप्त हो गया तथा दुर्ग पर मुसलमानों का आधिपत्य हो गया।  कुछ समय बाद परमर्दिदेव के उत्तराधिकारी शासक त्रिलोक्यवर्मन ने कालंजर दुर्ग प्राप्त कर लिया तथा “कालंजराधिपति” की उपाधि धारण की।  कालंजर  दुर्ग अंततः अकबर के आक्रमण के बाद सदैव के लिए हिंदू शासकों के हाथ से निकल गया।

राजनीतिक घटनाक्रम के उपर्युक्त  विवरण से विदित होता है कि कालंजर  न केवल प्राचीन भारतीय राजसत्ताओं के लिए अपितु पूर्व मध्यकालीन और मध्यकालीन सत्ताओं के लिए भी शक्ति-संघर्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा।  इस दुर्ग पर अधिकार भारत के हृदय-देश बुंदेलखंड पर शासन का प्रतीक था।  जिस प्रकार दिल्ली पर  अधिकार उत्तरी भारत पर आधिपत्य का सूचक था उसी प्रकार कालंजर अधिकार भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र पर। चूँकि यह क्षेत्र उत्तर भारत के दक्षिण भारत की मंडियों  एवं समुद्री बंदरगाहों तक जाने वाले व्यापारिक  मार्गों का प्रवेश द्वार था और इस प्रवेश द्वार का प्रहरी कालंजर था इसलिए कालंजर पर अधिकार की होड़ आर्थिक संसाधनों पर अधिकार की भी होड़ थी तथा इसीलिए कालंजर इस काल में बराबर राजनीतिक शक्ति का केंद्र-बिंदु बना रहा एवं विभिन्न राजनीतिक शक्तियां  उस पर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करती रहीं।

About Prof. S.K. Sullerey :

Retd. Head of Department of Ancient Indian History, Culture & Archaeology
Rani Durgavati Vishwavidyalaya, Jabalpur (M.P.) INDIA
Ex-Fellow-IIAS, Shimla

Homepage: https://bundelkhand.in/authors/dr-s-k-sullerey 

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