चन्देल मूर्तिकला में जैन श्रेष्ठियों का योगदान   

by डॉ. सुशील कुमार सुल्लेरे*
एवं डॉ. आर. एन. श्रीवास्तव**

पार्श्वनाथ मंदिर, खजुराहो

विष्णु-लक्ष्मी पार्श्वनाथ मंदिर, खजुराहो

प्राचीन भारतीय कला इतिहास का यदि अध्ययन किया जाये तो हमें उसके विकास में दो प्रकार के व्यक्तियों का योगदान देखने को मिलता है। प्रथम कोटि के अन्तर्गत हम राजकीय मूर्तिकला को रख सकते हैं जिसके विकास में राजकीय योगदान किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता है। दूसरी कोटि के अन्तर्गत हम लोकपक्ष को रख सकते हैं। इसके अन्तर्गत कलात्मक स्मारकों और मूर्तियों के निर्माण में समाज के सभी वर्गों का समेकित योगदान रहा है। इस वर्ग में लोकपक्ष का प्रभाव परिलक्षित होता है।

भारतीय कला के विकास में सर्वप्रथम महत्वपूर्ण स्थान हड़प्पा कला का दिखाई देता है। इस काल की कला में भी हमें दो रूपों के दर्शन होते हैं। इसका प्रथम स्वरूप राजकीय या प्रशासनिक कहा जा सकता है जिसने नगर संरचना के व्यवस्थित विकास में योगदान दिया तथा नगर विकास सुनियोजित पद्धति से और योजनाबद्ध ढंग से निर्मित हुए इसके साथ ही सार्वजनिक विशाल भवनों जैसे बृहत् स्नानागार, अन्नागार, सभागृह और दुर्ग इसके ही प्रभाव के अंतर्गत निर्मित हुए। जहाँ तक सैन्धव कला में लोककला का पक्ष है इसके अन्तर्गत मृणमूर्तिकला को रखा जा सकता है जिसके निर्माण में समाज के सामान्य वर्ग की महत्वपूर्ण भागीदारी रही होगी। सैन्धव कला (Indus Art) का स्वरूप उपयोग से जुड़ा हुआ था। इस प्रकार से हम सैन्धव कला को जन उपयोगी कला की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं।

भारतीय कला में सिन्धुघाटी के उपरान्त मौर्यकाल का स्थान आता है। मौर्यकाल की कला में भी हमें कला के इन दो रूपों के दर्शन होते हैं। मौर्य काल के विकास में राज्य इच्छाशक्ति की प्रबलता दिखाई देती है चाहे पाटलिपुत्र नगर को संरचना हो अथवा चन्द्रगुप्त और अशोक का राजप्रसाद तथा अशोक के द्वारा निर्मित एकाश्मक खिलाखण्डों में निर्मित विशाल शिलास्तम्भ दिखायी देते हैं जिन पर पशु मूर्तियों का अंकन दृष्टिगत होता है। इस महत कीमत कार्य के लिए राजसता और गजइच्छा का उपयोग निश्चित रूप से हुआ है। मौर्यकाल में हो कला का लोकपक्ष हमें देखने को मिलता है जिसके अन्तर्गत मूर्तियाँ और मृणमूर्तियों आती है।

मौर्योत्तर काल राजनीतिक दृष्टि से सत्ता के विकेन्द्रीकरण का काल कहा जा सकता है। इस काल में शुंगों के साथ-साथ क्षेत्रीय राजशक्तियों का भी उदय हुआ है। मोत्तर काल की कला निश्चित रूप से मौर्यकला की धारा से अलग थी। राजकीय योगदान इस काल की कला में अल्पमात्रा में था जबकि लोकपक्ष के सभी वर्गों का योगदान अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस बात की पुष्टि भरहुत साँची  आदि के स्तूपों में होती है। जिनके निर्माण में समाज के विभिन्न वर्गों ने अपनी शक्ति और मामर्थ्य के अनुसार दान दिया। इस प्रकार मीर्योत्तर काल में कला का जन सहयोगी पक्ष विशेष रूप से उभर कर हमारे सामने आता है। 

इसी काल में खारवेल के हाथी गुफा अभिलेख से राजकीय पक्ष भी हमें देखने को मिलता है। कुषाण और शक सातवाहन काल में भी भारतीय कला के इन दोनों उभय पक्षों की जानकारी साहित्यिक और अभिलेखीय पक्षों से ज्ञात होती है। गुप्तकाल में भी हमें अभिलेखीय साक्ष्यों से दोनों ही प्रकार के निर्माण कार्यों का परिचय मिलता है और कलावशेषों के निर्माण में राजपक्ष और लोकपक्ष का योगदान दृष्टिगत होता है।

गुप्तोत्तर काल में पुनः हमें सत्ता के विकेन्द्रीकरण का परिचय मिलता है जिसके परिणाम स्वरूप आंचलिक राजवंश और सत्तायें दृष्टिगत होती हैं। इस काल में भी कला के यह दो रूप दृष्टिगत होते हैं।

प्रतिहारों के समय में पुनः एक बार उत्तर भारत में एक केन्द्रीय सत्ता का निर्माण हुआ और जिसने उत्तर भारत के एक बड़े भू-भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। प्रतिहारों के समय में भी कला का विकास इन दोनों रूपों में हमें देखने को मिलता है।

प्रतिहारों के पतन के उपरान्त मध्यप्रदेश में अनेक क्षेत्रीय राजवंशों का उदय हुआ जिसके अन्तर्गत जेजाकमुक्ति क्षेत्र में चन्देल, डाहल क्षेत्र में कलचुरि और मालवा क्षेत्र में परमारों का अभ्युदय हुआ। इन तीनों राजवंशों के मध्य जहाँ सत्ता संघर्ष दिखाई देता है वहीं कलात्मक निर्माण में परस्पर प्रतिस्पर्धा भी देखने को मिलती है। इन राजवंशों के शासनकाल में वर्तमान मध्यप्रदेश का भू-भाग अनेकानेक सुन्दर मन्दिरों और कलाकृतियों का अनूठा संग्रहालय बन गया था।

चन्देल राजवंश का उदय जेजाकभुक्ति क्षेत्र वर्तमान उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में हुआ था। इन्होंने 9वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में लगभग 600 वर्षों तक राज्य किया। इसके बाद भी इस वंश की शाखायें बिहार और हिमाचल प्रदेश में भी गई और वहाँ उन्होंने अपनी शासनसत्ता स्थापित की।

चन्देल राजवंश अपनी राजनैतिक उपलब्धियों की दृष्टि से पूर्व मध्ययुगीन उत्तर भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। महमूद गजनवी के आक्रमणों के प्रतिरोध में इस राजवंश ने जिस ढंग की सकारात्मक भूमिका निर्वाह की वह अद्वितीय है। चन्देलों को सांस्कृतिक उपलब्धियाँ उनकी  राजनैतिक उपलब्धियों को अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण कही जा सकती हैं। उन्होंने अपने राज्य को सुदृढ़  दुर्गों, राजप्रासादों, भव्य मन्दिरों, झीलों और तालाबों और सुंदर उद्यानों से सुसज्जित किया जिसके उदाहरण कालिंजर, अजयगढ़, महोबा, दुधई, चांदपुर, देवगढ़, आहार आदि अनेक स्थानों पर देखने को मिलते हैं लेकिन इन सबकी अपेक्षा चन्देलों के द्वारा खजुराहो में निर्मित मन्दिर न केवल कलात्मक दृष्टि से बेजोड़ है वरन् उत्तर भारतीय मंदिर शैली के श्रेष्ठतम उदाहरण भी हैं। इनको कलात्मकता को दृष्टिगत रखते हुए यूनेस्को ने 1986 में खजुराहो के पश्चिमी मन्दिर समूह को विश्व धरोहर समूह में स्थान प्रदान किया है। खजुराहो को भी चन्देल शासकों ने झीलों, तालाबों और विभिन्न सम्प्रदाय के देवालयों में सुसज्जित किया था। ऐसा माना जाता है कि यहाँ आरम्भ में 85 मंदिरों का निर्माण हुआ उनमें से अब लगभग 25 ही  शेष है जो विभिन्न सम्प्रदाय से संबंधित है और तत्कालीन राजाओं की धर्म सहिष्णुता और सर्वधर्म सद्भाव की भावना को व्यक्त करते हैं।

चन्देल शासक अधिकांशतः ब्राह्मण धर्माबलम्बी थे। आरम्भिक शासक वैष्णव धर्म से संबंधित थे तथा धंग के बाद अधिकांश परवर्ती शासक शैव धर्मावलम्बी थे और वे परममाहेश्वर की उपाधि से अपने आपको विभूषित करते थे। चन्देल राजाओं ने मन्दिर निर्माण के सम्बन्ध में उदार और सहिष्णुतापूर्ण दृष्टिकोण को अपनाया था। यही कारण है कि उनके राज्य में सभी सम्प्रदायों के मन्दिरों का निर्माण हुआ।

चन्देल काल में अभिलेखीय साक्ष्य से विदित होता है कि इनके राज्य में जैन श्रेष्ठियों की बहुतायत थी और यह सभी व्यापारी वर्ग से सम्बन्धित थे। इन्होंने जहाँ व्यापार के माध्यम से धनार्जन किया वहीं धर्मप्राण होने के कारण अपने धर्म से सम्बन्धित मन्दिरों, मूर्तियों और वाटिकाओं का निर्माण भी करवाया जिसकी जानकारी उपलब्ध स्मारकों और अभिलेखीय साक्ष्यों से मिलती है। वर्तमान समय में भी बुन्देलखण्ड क्षेत्र में समृद्ध जैन व्यापारियों की बहुतायत है और आज भी वह उसी उदार परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं। जैन श्रेष्ठियों ने चन्देलों के समय में अजयगढ़, खजुराहो, महोबा, आहार, दुधई, चांदपुर और देवगढ़ आदि स्थानों पर मन्दिरों मूर्तियों और वाटिकाओं का निर्माण कराया तथा उनके सुचारू संचालन हेतु दान भी दिया। इस दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हमें खजुराहो के अभिलेख से ज्ञात होती है जिसमें चन्देल शासक धंग के समकालीन प्रतिष्ठित जैन श्रेष्ठ पाहिल्ल के द्वारा वाटिकाओं का दान दिया गया था। इन अभिलेखों में उसके द्वारा दी गई एक वाटिका का नाम धंग वाटिका भी मिलता है। इन वाटिकाओं के निर्माण से यह प्रतीत होता है कि तत्कालीन देवालयों को सुरम्य और पर्यावरणीय दृष्टि से ध्यान और योग का केन्द्र बनाने के लिये वाटिकाओं का निर्माण भी कराया जाता था। इससे अभिलेख में महाराज गुरु जो महाराजाधिराज भंग के गुरु थे, का नामोल्लेख भी मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि धंग के राजगुरु जैन धर्मावलम्बी थे।1

खजुराहो के ही एक अन्य मूर्ति लेख से श्रेष्ठि वीवतशाह को भार्या पद्मावती द्वारा आदिनाथ की मूर्ति स्थापित कराये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।2 यहाँ से प्राप्त एक अन्य मूर्ति लेख में श्रेणी पाणिधर के पुत्रों के नामों का उल्लेख प्राप्त होता है।3  जिनके द्वारा प्रतिमा स्थापित कराये जाने का लेख अंकित है। इसी प्रकार खजुराहो से हो प्राप्त पाहिल के वंशज साल्हे  द्वारा संभवनाथ की मूर्ति स्थापना का उल्लेख प्राप्त होता है। इसके साथ ही खजुराहो में जैन धर्म के दो महत्वपूर्ण मन्दिर भी मिलते हैं। उनमें से एक आदिनाथ और दूसरा पार्श्वनाथ का है। ऐसा लगता है कि इन मन्दिरों का निर्माण भी जैन धर्म के दिगम्बर जैन श्रेष्ठियों के द्वारा ही करवाया गया होगा। पार्श्वनाथ मन्दिर जैन मन्दिर होने के साथ-साथ एक विलक्षणता भी लिए हुए है। इस मन्दिर में हमें अनेक हिन्दू देवी-देवताओं का अंकन भी देखने को मिलता है। विशेषकर देवताओं के युगल रूप का।  उदाहरण के लिये इस मंदिर की भित्ति पर हमें राम और सीता का भी अंकन मिलता है। यह जैन धर्मावलम्बियों की धार्मिक सहृदयता और परस्पर धार्मिक सामंजस्य की और आदान-प्रदान की भावना की ओर इंगित करता है। जैन धर्म के मन्दिर क्षेत्र के अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं जैसे अजयगढ़, महोबा, आहार, चन्दपुर, दुधई, सोनगिरि और द्रोणगिरि में भी निर्माण हुआ है। ऐसा लगता है कि इन सभी मन्दिरों के निर्माण में जैन श्रेष्ठियों का हो महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

खजुराहो के मन्दिरों में हमें ऊंटों का उनके व्यापारियों के साथ अंकन मिलता है। यह इस बात का साक्ष्य कहा जा सकता है कि चन्देल राज्य के श्रेष्ठियों का राजस्थान के श्रेष्ठियों के साथ व्यापारिक संबंध रहा होगा और वस्तुएं एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लाई जाती रही होगी। इससे चन्देलों के समय में जैन श्रेष्ठियों के अन्तर्राज्यीय व्यापार पर भी प्रकाश पड़ता है।

टीकमगढ़ के निकट आहार से प्राप्त शान्तिनाथ प्रतिमा लेख स. 1237 से ज्ञात होता है कि बाणपुर नगर (टीकमगढ़ के निकट) के निवासी गृहपति वंश के श्रीमान् देवपाल द्वारा सहस्रकूट चैत्यालय निर्मित कराया गया था। देवपाल के पुत्र रामपाल द्वारा यहाँ पर एक जिनायतन के निर्माण का उल्लेख भी इसी लेख में किया गया है। इसी प्रतिमा लेख में उल्लेख है कि रल्हण के श्रेष्ठियों  प्रमुख श्रीमान् गल्हण का जन्म हुआ। उन्होंने शांतिनाथ भगवान का एक चैत्यालय नन्दपुर में और सभी लोगों को आनन्द देने वाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्मस्थान भीमदनेशसागरपुर (आहार) बनवाया था। इसी कुल में संपत्ति श्री जहाद ने मदनेश सागरपुर के मन्दिर में विशाल शान्तिनाथ प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी थी।4 इसी प्रकार यहां से प्राप्त आदिनाथ प्रतिमा लेख में मददेवालय के सेठ दामामारू के पुत्र सुनद माल्ह और केलाम सभी ने प्रतिमा को प्रतिष्ठा कराई।5

यहाँ से प्राप्त कुन्थुनाथ प्रतिमा लेख संवत् 1237 भी इसी प्रकार के संवाद से जुड़ा है। इसमें मंदिर और मूर्ति का निर्माण करये जाने का लेख है।6  अतिरिक्त आहार से और भी कई सांख्यकों में जैन प्रतिमा प्राप्त हुई है जिनमें जिन झांकियों का उल्लेख प्राप्त होता है।7

इसी प्रकार का एक मूर्ति लेख धुवेला संग्रहालय (Dhubela Museum) में संरक्षित है। तीर्थकर नेमिनाथ को इस मूर्ति की स्थापना सबसे पहले कुल के मल्हन द्वारा की गई थी।8

महोबा जैन लेख में रत्नपाल द्वारा प्रदात अजितनाथ की मूर्ति का वर्णन है।अजयगढ़ के जैन मन्दिर में संरक्षित तीर्थकर शान्तिनाथ की प्रतिमा की पदपीठ पर अंकित लेख मे जात होता है कि इस प्रतिमा का निर्माण जयपुर दुर्ग निवासी साधु सिद्धल और देवकी के पुत्र साधु सोढल के द्वारा करवाया गया था। इस अभिलेख में विक्रम संवत् 1335 का उल्लेख है। यह चन्देल शासक और वीरवर्मन का समय था। इसके ही  शासन काल में जैन मन्दिरों  निर्माण हुआ होगा। इस मन्दिर के निर्माण में सम्पन्न जैन श्रेष्ठियों और ग्रहपतियों का उल्लेख मिलता है।9

जयगढ़ में तीर्थकर सुमितनाथ प्रतिमालेख संवत् 1331 जो वीरवर्मदेव के राज्यकाल का है। इसमें जैन मुनि कुन्द-कुन्द  की शिष्य परम्परा के आचार्य धनकीर्ति के शिष्य आचार्य कुमुदचन्द के द्वारा प्रतिष्ठा की गई।10

छतरपुर के चौधरी दिगम्बर जैन मन्दिर में भी तीर्थंकर नेमिनाथ की एक प्रतिमा संरक्षित है। इस प्रतिमा में श्रेष्ठि कूक के पुत्र श्रेष्ठि श्री वीसल और उनके परिजनों के द्वारा सं. 1202 में प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है।11

विवेच्य काल में जैन श्रेष्ठि वर्ग का योगदान देवालयों तथा मूर्तियों की स्थापना तक ही सीमित नहीं था अपितु इस बात के भी अनेक प्रमाण है कि वे उनकी रक्षा तथा जैन साधुओं की वृत्ति की व्यवस्था आदि के लिए भी सतत् जागरूक थे। वे  मन्दिरों को दान देते थे और अपने धर्मोपदेशकों का उचित सम्मान भी करते थे।

जैन श्रेष्ठि वर्ग को सम्पन्नता और उदारता ने चन्देल मूर्तिकला में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसकी पुष्टि ऊपर वर्णित अभिलेखीय साक्ष्यों से स्पष्ट होती है। इसके साथ ही अभिलेखीय साक्ष्यों से जैन समाज की विभिन्न उपजातियों का भी परिचर्य प्राप्त होता है।

About Prof. S.K. Sullerey :

Retd. Head of Department of Ancient Indian History, Culture & Archaeology
Rani Durgavati Vishwavidyalaya, Jabalpur (M.P.) INDIA
Ex-Fellow-IIAS, Shimla

Author Homepage: https://bundelkhand.in/authors/dr-s-k-sullerey 

संदर्भ :