ग्रंथों में कालिंजर का उल्लेख
कालिंजर का उल्लेख अनेक युगों से होता आया है।
इसका वर्णन व उल्लेख करने वाले कुछ ग्रन्थ इस प्रकार से हैं:
ऋगवेद में इसके वर्णन के अनुसार इसे चेदिदेश का अंग माना गया था।
“यथा चिच्चैद्यः कशुः शतमुष्ट्रानां ददत्सहस्रा दश गोनाम् ॥३७॥
यो मे हिरण्यसंदृशो दश राज्ञो अमंहत ।अधस्पदा इच्चैद्यस्य कृष्टयश्चर्मम्ना अभितो जनाः ॥३८॥
माकिरेना पथा गाद्येनेमे यन्ति चेदयः ।अन्यो नेत्सूरिरोहते भूरिदावत्तरो जनः ॥३९॥”
—ऋगवेद सूक्तं ८.५
विष्णु पुराण में इसका परिक्षेत्र विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के अन्तर्गत्त माना गया है:
“महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः॥
विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥”
—विष्णु पुराण, भाग-२, ३२९
गरुड़ पुराण में कालिंजर के महत्त्व को स्वीकारते हुए इसे महातीर्थ एवं परमतीर्थ की संज्ञा दी गई है।
“गौवर्णं परमं तीर्थ, तीर्थ माहिष्मती पुरी॥
कालंजर महातीर्थ, शुक्रतीर्थ मनुत्तमम्॥”
—गरुड़ पुराण, ८१
तथा सम्पूर्ण प्रकार के पापों से मुक्त कर मोक्ष दिलाने वाला बताया गया है:
“कृते शोचे मुक्तिदश्च शांर्ग्ङ्गधारीतन्दिके॥
विरजं सर्वदं तीर्थ स्वर्णाक्षंतीर्थमुतमम्॥”
—गरुड़ पुराण, १८-१९
वायु पुराण के अनुसार विषपान पश्चात भगवान शिव का कण्ठ नीला पड़ गया और काल को भस्म करने के कारण यहाँ का नाम कालिंजर पड़ गया।
“तत्र कालं जरिष्यामि तथा गिरिवरोत्तमे॥
तेन कालंजरो नाम भविष्यति स पर्वतः॥”
—वायु पुराण, अ-२३, १०४
वायु पुराण में ही कहा गया है कि जो व्यक्ति कालन्जर में श्राद्ध करता है, उसे पुण्य लाभ होता है।:
“कालन्जरे दशार्णायं नैमिषै कुरुजांगले॥
वाराणस्या तु नगर्या तुदेयं तु यन्ततः॥”
—वायु पुराण, ७७, ९३
कूर्म पुराण में शिव जी के यहाँ काल को जीर्ण करने का उल्लेख है, इसलिये भविष्य में इसका नाम कालंजर होगा।:
“काले महेश निहते लोकनाथः पितामहः। अचायत वरं रुद्रम सजीवो यं भवित्वति॥
इत्थेतत्परम तीर्थ कालंजर मितिशृतम। गत्वाम्यार्च्य महादेवं गाआणपत्यं स विन्द्यति॥”
—कूर्म पुराण, ३६, ३५-३८
वामन पुराण में कालिंजर को नीलकण्ठ का निवास स्थल माना गया है:
“कालन्जरे नीलकण्ठं सरश्वामनुत्तम॥
हंसयुक्तं महाकोश्यां सर्वपाप प्रणाशनम॥”
—वामन पुराण, ९०,२७
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रामचन्द्र जी ने एक कुत्ते के कहने पर ब्राह्मण को कालिंजर का कुलपति नियुक्त किया।
“कालन्जरे महाराज कौलपत्य प्रतीप्ताम॥
एतत्छुत्वा तुरामेण कालेपत्यं भिषेचितः॥”
—वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड, प्रशिप्तः सर्गः ७,२,३९
महाभारत में वेद व्यास ने इस क्षेत्र को वेदों का ही अंश माना है, व कहा है कि इसकी सीमाएं कुरु, पांचाल, मत्स्य, दशार्ण, आदि से जुड़ी हुई हैं।
“सन्ति रम्याजनपदा वहवन्ना: पारितः कुरुन। पांचालश्च-चेदि-मत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चरा॥११॥
दशार्णा: नवराष्ट्रश्च मल्लः सात्वा, युगन्धराः। कुन्ति राष्ट्र सुविस्तीर्ण सुराष्ट्रावन्त्यस्तथा॥”
— महाभारत, १,६३,२,५८,४,११-१२