कालिंजर दुर्ग : सामरिक एवं व्यवहारिक महत्व
By: Dr. Vibha
कालिंजर का दुर्ग मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। उसकी स्थिति की महत्ता इतनी थी कि उसकी विजय संपूर्ण मध्यभारत की विजय मानी जाती थी। इस किले की प्राचीनता, आध्यात्मिक महिमा, इसकी रचना और कौशल एवं इसकी सैनिक और ऐतिहासिक ख्याति सभी एक से बढ़कर एक महत्व के हैं।
विन्ध्य के अंचल में कालिंजर उत्तरप्रदेश के बांदा जिले में बांदा से 35 मील की दूरी पर 25°1' उत्तरी अक्षांश में तथा 80°29' पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई 1230 फुट है।
कालिंजर का आरंभिक इतिहास उस क्षेत्र से धनिष्ठ रूप से संबंधित है, जो विभिन्न कालों में चेदि देश, चेदि राष्ट्र, जेजाक मुक्ति, जझौती और बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है। प्रागैतिहासिक काल से यह समूचा भू-खण्ड उन व्यक्तियों के क्रियाकलापों का क्षेत्र थाजो विन्ध्य की गिरि कन्दराओं में निवास करते थे। अथवा वहाँ की प्रमुख नदियों के तट पर बसे थे। जीवन-यापन तथा सुरक्षा के लिए पाषाण के अस्त्रों का प्रयोग करते थे, उनके द्वारा बनाए गए चित्र कई पर्वतीय स्थानों में मिले हैं। मानव सभ्यता की इस सुरक्षित धरोहर में बुन्देलखण्ड की इस भूमि में अजेय गिरि दुर्ग कालिंजर का सामरिक महत्व मानव सभ्यता के साथसाथ है। इस क्षेत्र का विस्तार पश्चिम में बेतवा नदी तक, पूर्व में विन्ध्य क्षेत्र तक, उत्तर में यमुना नदी तक, दक्षिण में नर्मदा नदी तक, था। केन नदी इस क्षेत्र के पश्चिम की ओर प्रवाहित होती है। यह नदी इस क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करती हैइसके पश्चिम भाग में नगर महोबा एवं खजुराहो हैंपूर्वी आधे भाग में कालिंजर एवं अजयगढ़ के महान दुर्ग हैं
कालिंजर दुर्ग विन्ध्य पर्वत माला की एक पर्वत श्रेणी पर है। विन्ध्य पर्वत श्रृंखला के समतल पर्वत स्कन्ध पर स्थित है, इस गिरि दुर्ग का निचला भाग दुर्गारोहण में सामान्य रूप से सरल है, मध्य भाग दुरारोह है जबकि ऊपरी भाग लम्बवत और बिलकुल अगम्य है, जिसके कारण दुर्ग प्राकृतिक रूप से अजेय एवं सुरक्षात्मक हैइस दुर्ग के पर्वत का निचला भाग कर्णिश्म का है, लेकिन ऊपरी भाग बलुआ पत्थर का है। इसका क्षेत्रफल 1340 बतलाया जाता है। कालिंजर गिरि की एक सुदृढ़ दीवार प्राचीर के रूप में उसे घेरे हुए है। इसी प्राचीर के कारण कालिंजर गिरि कालिंजर दुर्ग के नाम से इतिहास प्रसिद्ध हैइस दुर्ग की अजेयता जहाँ पर्वत की प्राकृतिक रचना के कारण बहुत कुछ थी वहाँ बनावट की दृढ़ता के कारण भी बाहर से परकोटे की ऊँचाई सामान्यतया 40-50 फीट ज्ञात होती है। इसके प्रवेश मार्ग की रचना बड़ी दुर्गम है। दुर्ग की इस विशेषता का परिणाम यह रहा कि सदियों तक उत्तर भारत का महानतम सैनिक गौरव बना रहा। आक्रमणकारी उसकी विजय को उत्तर भारत की विजय मानते रहे। वर्तमान में जो इस दुर्ग का स्वरूप मिलता है उसकी महत्ता को घोषित करता है। उसमें चार विशाल द्वार थे, तीन द्वार आज भी विद्यामान है। जो कामता, फटक, पन्ना फाटक, रेवा फाटक के नाम से ज्ञात हैं। इस दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार हैं जिनके नाम हैं आलमगीर दरवाजा, गणेश दरवाजा, चण्डी अथवा चौबुर्जी दरवाजा, बुधभद्र दरवाजा, हनुमान दरवाजा, लाल दरवाजा, और बड़ा दरवाजा।
इस दुर्ग में सात प्रवेश द्वारों को देखकर पागसन का मानना है कि कालिंजर सूर्योपासना का केन्द्र रहा होगा। अपने कथन की पुष्टि रविचित से करते हैं कनिगतक के मतानुसार रविचित का सामानय अर्थ सूर्य चित्र है।
2. कालिंजर दुर्ग के सामरिक महत्त्व उस स्थान की प्राचीनता एवं ऐतिहासिक कालक्रम की कड़ी जो युग युगीन इस प्राकृतिक गिरि का महत्त्व दर्शाते हैं:
(1) त्रेता युग - भगवान राम के राजत्व काल में कालिंजर राम राज्य के अंतर्गत था। बाल्मीक रामायण में वर्णित कुशानगरी (कालिंजर) हैं, कुश वंश ने इस दुर्ग पर कई पीढ़ियों तक राज्य किया।
(2) द्वापर युग - इस युग में यह क्षेत्र महाराजा पांडु के अधिकार में था महाराज पाण्डु ने जो यात्रा प्रारंभ की थी वह इसी कालिंजर से ही की थी, पाण्डवों ने कौरवों से जो पाँच राज्य - मांगे थे, उनमें कालिंजर भी था। कांची, कटक, कन्नौज, काशी और कालिंजर।
(3) ईसा पूर्व - राजा उदयन का राज्य काल 470 ई. पूर्व माना जाता है, जो कि कौसम्बी राजा थे, जिसका किले के एक शिलालेख में मिलता है, उदयन के प्रपौत्र क्षेमक से उसके मंत्री विसर्प ने स्वंय राज्य हस्तगत कर लिया।
(4) विसर्प राज्य - विसर्प चौहद पीढ़ियों तक कालिंजर में राज्य किया। आखिरी राजा मंत्री महाराज बिन सूरन द्वारा मारा गया, महाराज बिन सूरन और उसके वंशजों ने दस पीढ़ियों तक शासन किया
(5) राजा केदार - तवारीख फरिश्ता के अनुसार इस किले की बुनियाद शाही राजा केदार ब्राह्मण ने डलवाई थी। यह कश्मीरी थाकुछ शास्त्रों से विदित होता है उसका शासनकाल 1000 ई. पू. था। कुछ विद्वानों के अनुसार राजा केदार हजरत मुहम्मद साहब के समकालीन था।
(6) राजा संकल - संकल ने 64 वर्ष तक। राज्य किया।
(7) मौर्य वंश एवं कुषाण वंश - अशोक मौर्य, चन्द्रगुप्त मौर्य ने यहाँ अनेक बौद्ध मूर्तियों का निर्माण कराया, तत्पश्चात कुषाण वंश के कनिष्ठ के अधिकार में रहा। यह 78 ई. के लगभग राज्य करता थाकनिष्ठ ने चरक वैद्य के साथ कालिंजर भ्रमण किया वर्णन चरक संहिता में पाया जाता है।
(8) 249 ई. में हैहयवंशी कलचुरि कृष्ण राजा के अधिकार में कालिंजर था।
(9) गुप्त एवं हूण वंश - सन् 327 ई. तक चन्द्रगुप्त के आधिपत्य में कालिंजर रहा, समुद्रगुप्त के साम्राज्य का अंग भी कालिंजर दुर्ग रहा। तत्पश्चात हूण वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ, कालिंजर दुर्ग 420 ई. से 528 ई. तक इस साम्राज्य का अभिन्न अंग रहा।
(10) हर्षवर्धन के समय सारा बुन्देलखण्ड उसके साम्राज्य का अंग था
(11) कलचुरियों के आधिपत्य पर कालिंजर दुर्ग रहा - मैसूर के 'शिलालेख' नामक पुस्तक में 229 वें पृष्ठ पर लुईस राजा ने लिखा है, कलचुरि राजा कृष्ण राव ने कालिंजर दुर्ग पर अधिकार करके “कालिंजर पुराधीश्वर' की उपाधि पाई थी, इसके बाद अन्य कलचुरि राजाओं के अभिलेखों से विदित होता है, कोकल देव, काकलदेव द्वितीय, गांगेयदेव, एवं राजा कर्ण ने कालिंजर पर आधिपत्य किया था।
(12) चन्देलों के समय तक कालिंजर की ख्याति एक अजेय दुर्ग में हो चुकी थी। इस पर अधिकार करना सम्राटों के सर्वशक्तिमान होने का द्योतक था। चन्देलों से पूर्व दुर्ग कलचुरि, प्रतिहार, भोज और राष्ट्रकूट शासकों के हाथों रह चुका था। यशोवर्मन चन्देल (930-950 ई.) में प्रतिहारों से जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया था। तब से उस समय तक चन्देलों के हाथों में रहा जब तक कुतुबुद्दीन ऐवक ने इसे जीत कर दास वंश के अधीन नहीं कर दिया।
(13) बुन्देल वंश का आधिपत्य - इस वंश के राजा सहनपाल ने 1266 ई. में नागबूचा खंगार को मारकर गढ़कुढ़ार छीनकर बुन्देल राज्य की स्थापना की, कालिंजर दुर्ग भी इसी राजा ने जीता था। बुन्देलों ने कालिंजर दुर्ग की रक्षा हेतु मुस्लिम आक्रमणों का सामना किया, बुन्देलों की राजनीति भी इसी दुर्ग के वक्षस्थल पर फली-फूली और निरोहित हुई थी, महाराज छत्रसाल एवं हृदयसाल ने इस दुर्ग हेतु अनेकों उदा. है। क्षेत्र में गृह कलह का लाभ उठाकर चौबे स्वतंत्र हो गयेचौबों ने कालिंजर पर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।